कलम से ही/मार सकता हूँ तुझे मैं/कलम का मारा हुआ/ बचता नहीं है। सृजन की अपूर्व-अपरिहार्य माँग को सम्भवतः स्रष्टा भी अभी तक पूरी नहीं कर सका, वरना वह अब भी सृष्टि को नव-नव रूप क्यों दिए जाता। मन और तन की पारस्परिक प्रतिक्रियाएं बड़ी जटिल और अनग्र कथनीय होती हैं। कभी तो मन अपनी उलझनों में शरीर को भी लपेट लेता है और कभी मन अपनी उधेड़-बुन में इतना तल्लीन होता है कि शरीर को अछूता छोड़ देता है।
एक तरह से, जीवन पाकर हम प्रतिक्षण बढ़ते या घटते रहते हैं। जितनी बढ़ती है, उतनी घटती है। उम्र अपने-आप कटती है। जीवन सदा एक प्रकार का सन्तुलन रखता है, वह कुछ लेता है, तो कुछ देता भी है, वह कुछ कम करता है तो कुछ का आधिक्य भी कर देता है। राह? यहाँ पर राह नही है, अपनी राह बनाओ। मनस्येक, वचस्येकं, कर्मस्येकं, महात्मनाम्। अकेला भी बहुत बड़ा है इन्सान।
जिन्दों की जरूरतें मुर्दो की जरूरतों से पहले पूरी की जानी चाहिए।